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केले का भोज (A Banana Feast)

by Leeladhar©

यह एक ऐसी घटना है जिसकी याद दस साल बाद भी मुझे शर्म से पानी पानी कर देती है। लगता है धरती फट जाए और उसमें समा जाऊँ। अकेले में भी आइना देखने की हिम्‍मत नहीं होती।

कोई सोच भी नहीं सकता किसी के साथ ऐसा भी घट सकता है!!! एक छोटा सा केला।

उस घटना के बाद मैंने पापा से जिद करके जेएनयू (जवाहरलाल नेहरू विश्‍वविद्यालय, दिल्‍ली) ही छोड़ दिया। पता नहीं मेरी कितनी बदनामी हुई होगी। दस साल बाद आज भी किसी जेएनयू के विदृयार्थी के बारे में बात करते डर लगता है। कहीं वह सन 2000 के बैच का न निकले और सोशियोलॉजी विषय का न रहा हो। तब तो उसे जरूर मालूम होगा। खासकर हॉस्‍टल का रहनेवाला हो तब तो जरूर पहचान जाएगा।

गनीमत थी कि पापा को पता नहीं चला। उन्हें आश्‍चर्य ही होता रहा कि मैंने इतनी मेहनत से जेएनयू (जवाहरलाल नेहरू विश्‍वविद्यालय, दिल्‍ली) की प्रवेश परीक्षा पासकर उसमें छह महीना पढ़ लेने के बाद उसे छोड़ने का फैसला क्‍यों कर लिया। मुझे कुछ सूझा नहीं था, मैंने पिताजी से बहाना बना दिया कि मेरा मन सोशियोलॉजी पढ़ने का नहीं कर रहा और मैं मास कम्यूनिकेशन पढ़ना चाहती हूँ। छह महीने गुजर जाने के बाद अब नया एडमिशन तो अगले साल ही सम्भव था। चाहती थी अब वहां जाना ही न पड़े। संयोग से मेरी किस्मत ने साथ दिया और अगले साल मुझे बर्कले यूनिवर्सिटी से पत्रकारिता में छात्रवृत्ति मिल गई और मैं अमेरिका चली गई।

लेकिन विडम्बना ने मेरा पीछा वहाँ भी नहीं छोड़ा। यह छात्रवृत्ति नेहा को भी मिली थी और वह अमरीका मेरे साथ गई। वही इस कारनामे की जड़ थी। उसी ने जेएनयू में मेरी ये दुर्गति कराई थी। उसने अपने साथ मुझे भी अप्लाई करवाया था और पापा ने भी उसका साथ होने के कारण मुझे अकेले अमेरिका जाने की इजाजत दी थी। लेकिन नेहा की संगत ने मुझे अमेरिका में भी बेहद शर्मनाक वाकये में फँसाया, हालाँकि बाद में उसका मुझे बहुत फायदा मिला था। पर वह एक दूसरी कहानी है। नेहा एक साथ मेरी जिन्दगी में बहुत बड़ा दुर्भाग्य और बहुत बड़ा सौभाग्य दोनों थी।

............

वो नेहा! जेएनयू के साबरमती हॉस्टल की लड़कियाँ की सरताज। जितनी सुंदर उससे बढ़कर तेजस्वी। बिल्लौरी ऑंखों में काजल की धार और बातों में प्रबुध्द तर्क की धार। गोरापन लिये हुए छरहरा शरीर। किंचित ऊँची नासिका में चमकती हीरे की लौंग। चेहरे पर आत्मविश्‍वास की चमक। बुध्दिमान और बेशर्म। न चेहरे, न चाल में संकोच या लाज की छाया। छातियाँ जैसे मांसलता की अपेक्षा गर्व से ही उठी रहतीं। उच्चवर्गीय खुले माहौल से आई तितली। अन्य हॉस्टलों में भी उसके जैसी विलक्षण शायद ही कोई दिखी। मेरी रूममेट बनकर उसे जैसे एक टास्क मिल गया था कि किस तरह मेरी संकोची, शर्मीले स्वभाव को बदल डाले। मेरे पीछे पड़ी रहती। मुझे दकियानूसी बताकर मेरा मजाक उड़ाती रहती। उसकी तुर्शी-तेजी और पढाई में असाधारण होने के कारण मेरे मन पर उसका हल्का आतंक भी रहता, हालाँकि मैं उससे अधिक सुंदर थी, उससे अधिक गोरी और मांसल (लेकिन फालतू चर्बी से दूर; फिगर को लेकर मैं भी बड़ी कांशस थी।) उसके साथ चलती तो लड़कों की नजर उससे ज्यादा मुझपर गिरती, लेकिन उसका खुलापन बाजी मार ले जाता। मैं उसकी बातों का विरोध करती और एक शालीनता और सौम्यता के पर्दे के पीछे छिपकर अपना बचाव भी करती। जेएनयू का खुला माहौल भी उसकी बातों को बल प्रदान करता था। यहाँ लड़के लड़कियों के बीच भेदभाव नहीं था, दोनों बेहिचक मिलते थे। जो लड़कियाँ आरंभ में संकोची रही हों वे भी जल्दी जल्दी नए माहौल में ढल रही थीं। ऐसा नहीं कि मैं किसी पिछड़े माहौल से आई थी। मेरे पिता भी अफसर थे, तरक्कीपसंद नजरिये के थे और मैं खुद भी लड़के लड़कियों की दोस्ती के विरोध में नहीं थी। मगर मैं दोस्ती से सेक्स को दूर ही रखने की हिमायती थी जबकि नेहा ऐसी किसी बंदिश का विरोध करती थी। वह कहती शादी एक कमिटमेंट जरूर है मगर शादी के बाद ही, पहले नहीं। हम कुँआरी हैं, लड़कों के साथ दोस्ती को बढ़ते हुए अंतरंग होने की इच्छा स्वाभाविक है और अंतरंगता की चरम अभिव्यक्ति तो सेक्स में होती है। वह शरीर के सुख को काफी महत्व देती और उसपर खुलकर बात भी करती। मैं भारतीय संस्कृति की आड़ लेकर उसकी इन बातों का विरोध करती तो वह मदनोत्सव, कौमुदी महोत्सव और जाने कहाँ कहाँ से इतिहास से तर्क लाकर साबित कर देती कि सेक्स को लेकर टैबू हमारे प्राचीन समाज में था ही नहीं। मुझे चुप रहना पड़ता।

पर बातें चाहे जितनी कर खारिज दो मन में उत्सुकता तो जगाती ही हैं। वह औरतों के हस्तमैथुन, समलैंगिक संबंध के बारे में बात करती। शायद मुझसे ऐसा संबंध चाहती भी थी। मैं समझ रही थी, मगर ऊपर से बेरुखी दिखाती। मुझसे पूछती कभी तुमने खुद से किया है, तुम्हारी कभी इच्छा नहीं होती! भगवान ने जो खूबियाँ दी हैं उनको नकारते रहना क्या इसका सही मान है! जैसे पढाई में अच्छा होना तुम्हारा गुण है, वैसे ही तुम्हारे शरीर का भी अच्छा होना क्या तुम्हारा गुण नहीं है! अगर उसकी इज्जत करना तुम्हें पसंद है तो तुम्हारे शरीर .........

"ओफ... भगवान के लिए चुप रहो। तुम कुछ और नहीं सोच सकती?" मैं उसे चुप कराने की कोशिश करती।

"सोचती हूँ, इसीलिये तो कहती हूँ।"

"सेक्स या शारीरिक सौंदर्य मेरा निजी मामला है।" ""

"तुम्हारी पढ़ाई, तुम्हारा नॉलेज भी तो तुम्हारी निजी चीज है? " उस दिन कुछ वह ज्यादा ही तीव्रता में थी।

"है, लेकिन यह मेरी अपनी योग्यता है, इसे मैंने अपनी मेहनत से, अपनी बुध्दि से अर्जित किया है।"

"और शरीर कुदरत ने तुम्हें दिया है इसलिए वह गलत है?"

"बिल्कुल नहीं, मैं मेकअप करती हूँ, इसे सजा-धजाकर अच्छे से मेन्टेन करके रखती हूँ।"

"लेकिन इसे एंजॉय करना गलत समझती हो। या फिर खुद करो तो ठीक, दूसरा करे तो गलत, है ना?"

"अब तुम्हें कैसे समझाऊँ।"

वह आकर मेरे सामने बैठ गई, "माई डियर, मुझे मत समझाओ, खुद समझने की कोशिश करो।"

मैंने साँस छोड़ी, "तुम चाहती क्या हो? सबको अपना शरीर दिखाती फिरूँ?"

"बिल्कुल नहीं, लेकिन इसको दीवार नहीं बनाओ, सहज रूप से आने दो।" वह मेरी ऑंखों में ऑंखें डाले मुझे देख रही थी। वही बांध देनेवाली नजर, जिससे बचकर दूसरी तरफ देखना मुश्‍किल होता। मेरे पास अभी उसके कुतर्कों के जवाब होते, मगर बोलने की इच्छा कमजोर पड़ जाती।

फिर भी मैंने कोशिश की, "मैं यहाँ पढ़ने आई हूँ, प्रेम व्रेम के चक्कर में फँसने नहीं।"

"प्रेम में न पड़ो, दोस्ती से तो इनकार नहीं? वही करो, शरीर को साथ लेकर।"

मैं उसे देखती रह जाती। क्या चीज है यह लड़की! कोई शील संकोच नहीं? यहाँ से पहले माँ-बाप के पास भी क्या ऐसे ही रहती थी! उसने छह महीने में ही कई ब्वायफ्रेड बना लिये थे, उनके बीच तितली-सी फुदकती रहती। हॉस्टल के कमरे में कम ही रहती। जब देखो तो लाइब्रेरी में, या दोस्तों के साथ, या फिर हॉस्टल के कार्यक्रमों में। मुझे उत्सुकता होती वह लड़कों के साथ भी पढाई की बातें करती है या इश्‍क और सेक्स की बातें?

मुझे उसके दोस्तों को देखकर उत्सुकता तो होती पर मैं उनसे दूर ही रहती। शायद नेहा की बातों और व्यवहार की प्रतिक्रिया में मेरा लड़कों से दूरी बरतना कुछ ज्यादा था। वह नहीं होती तो शायद मैं उनसे अधिक मिलती-जुलती। उसके जो दोस्त आते वे उससे ज्यादा मुझे ही बहाने से देखने की कोशिश में रहते। मुझे अच्छा लगता -- कहीं पर तो उससे बीस हूँ। नेहा उनके साथ बातचीत में मुझे भी शामिल करने की कोशिश करती। मैं औपचारिकतावश थोड़ी बात कर लेती लेकिन नेहा को सख्ती से हिदायत दे रखी थी कि अपने दोस्तों के साथ मेरे बारे में कोई गंदी बात ना करे। अगर करेगी तो मैं कमरा चेंज करने का अप्लिकेशन दे दूंगी। वह डर-सी गई लेकिन उसने मुझे चुनौती भी देते हुए कहा था, "मैं तो कुछ नहीं करूंगी, लेकिन देखूंगी तुम कबतक लक्ष्मण रेखा के भीतर रहती हो। अगर कभी मेरे हाथ आयी तो, जानेमन, देख लेना, निराश नहीं करूंगी, वो मजा दूंगी कि जिन्दगीभर याद रखोगी।"

उस दिन मैं अनुमान भी नहीं लगा पाई थी उसकी बातों में कैसी रोंगटे खड़े कर देनेवाली मंशा छिपी थी।

लेकिन अकेले में मेरे साथ उसके रवैये में कोई फर्क नहीं था। दोस्ती की मदद के साथ साथ एक अंतनिर्हित रस्साकशी भी। नोट्स का आदान-प्रदान, किताबों, विषयों पर साधिकार बहस और साथ में उतने ही अधिकार से सेक्स संबंधी चर्चा। अपने सेक्स के, हस्तमैथुन के भी प्रसंगों का वर्णन करती, समलैंगिक अनुभव के लिए उत्सुकता जाहिर करती जिसमें अप्रत्यक्ष रूप से मेरी तरफ इशारा होता। कोई सुंदर गोरी लड़की मिले तो...... तुम्हारी जैसी ...... शायद मेरे प्रति मन में कमजोरी उसे मुझे खुलकर बोलने से रोकती। वह अशालीन भी नहीं थी। उसकी तमाम बातों में चालूपन से ऊपर एक परिष्कार का स्तर बना रहता। वह विरोध के लायक थी पर फटकार के लायक नहीं। वह मुझे हस्तमैथुन के लिए ज्यादा प्रेरित करती। कहती इसमें तो कोई आपत्ति नहीं है न। इसमें तो कोई दूसरा तुम्हें देखेगा, छुएगा नहीं?

वह रात देर तक पढ़ाई करती, सुबह देर से उठती। उसका नाश्‍ता अक्सर मुझे कमरे में लाकर रखना पड़ता। कभी कभी मैं भी अपना नाश्‍ता साथ ले आती। उस दिन जरूर संभावना रहती कि वह नाश्‍ते के फलों को दिखाकर कुछ बोलेगी। जैसे, 'असली' केला खाकर देखो, बड़ा मजा आएगा।' वैसे तो खीरे, ककड़ियों के टुकड़ों पर भी चुटकी लेती, 'खीरा भी बुरा नहीं है, मगर वह शुरू करने के लिए थोड़ा सख्त है।' केले को दिखाकर कहती, "इससे शुरूआत करो, इसकी साइज, लम्बाई मोटाई चिकनाई सब 'उससे' मिलते है, यह 'इसके' (उंगली से योनिस्थल की ओर इशारा) के सबसे ज्यादा अनुकूल है। एक बार उसने कहा, "छिलके को पहले मत उतारो, इन्फेक्‍शन का डर रहेगा। बस एक तरफ से थोड़ा-सा छिलका हटाओ और गूदे को उसके मुँह पर लगाओ, फिर धीरे धीरे ठेलो। छिलका उतरता जाएगा और एकदम फ्रेश चीज अंदर जाती जाएगी। नो इन्फेक्‍शन।"

मुझे हँसी आ रही थी। वह कूदकर मेरे बिस्तर पर आ गई और बोली, "बाई गॉड, एक बार करके तो देखो, बहुत मजा आएगा।" एक-दो सेकंड तक इंतजार करने के बाद बोली "बोलो तो मैं मदद करूँ। अभी। तुम्हें खा तो नहीं जाऊंगी।"

"क्या पता खा भी जाओ, तुम्हारा कोई भरोसा नहीं।" मैं बात को मजाक में रखना चाह रही थी।

"हुम्म...." कुछ हँसती, कुछ दाँत पीसती हुई-सी बोली, "तो जानेमन, सावधान रहना, तुम जैसी परी को अकेले नहीं खाऊंगी, सबको खिलाऊंगी।"

"सबको खिलाने से क्या मतलब है? मुझे उसकी हँसी के बावजूद डर लगा।

उस दिन कोई व्रत का दिन था। वह सुबह-सुबह नहाकर मंदिर गई थी। लौटने में देर होनी थी इसलिए मैंने उसका नाश्‍ता लाकर रख दिया था। आज हमें बस फलाहार करना था। अकेले कमरे में प्लेट में रखे केले को देखकर उसकी बात याद आ रही थी: 'इसकी साइज, लम्बाई मोटाई चिकनाई सब 'उससे' मिलते हैं।' मैं केले को उठाकर देखने लगी। पीला, मोटा और लम्बा। हल्का-सा टेढ़ा मानो इतरा रहा हो और मेरी हँसी उड़ाती नजर का बुरा मान रहा हो। असली लिंग को तो देखा नहीं था, मगर नेहा ने कहा था शुरू में वह भी मुँह में केले जैसा ही लगता है। मैंने कौतूहल से उसके मुँह पर से छिलके को थोड़ा अलगाया और उसे होठों पर छुलाया। नरम-सी मिठास, साथ में हल्के कसैलेपन का एहसास भी। क्या 'वह' भी ऐसा ही लगता है? मैं कुछ देर उसे होंठों और जीभ पर फिराती रही फिर अलग कर लिया। थूक का एक महीन तार उसके साथ खिंचकर चला आया। लगा, जैसे योनि के रस से गीला होकर लिंग निकला हो (एक ब्‍लू फिल्‍म में देखा था)। धत, मुझे शर्म आई। मैंने केले को मेज पर रख दिया।

मुझे लगा, मेरी योनि में भी गीलापन आने लगा है।

साढ़े आठ बज रहे थे। नेहा अब आती ही होगी। क्लास के लिए तैयार होने के लिए काफी समय था। केला मेज पर रखा था। उसे खाऊँ या रहने दूं। मैंने उसे फिर उठाकर देखा। सिरे पर अलगाए छिलके के भीतर से गूदे का गोल मुँह झाँक रहा था। मैंने शरारत से ही उसके मुँह पर नाखून से एक चीरे का निशान बना दिया। अब वह और वास्तविक लिंग-जैसा लगने लगा। मन में एक खयाल गुजर गया: जरा इसको अपनी 'उस' में भी लगाकर देखूं? पर इस खयाल को दिमाग से झटक दिया।

लेकिन केला सामने रखा था। छिलके के नीचे से झाँकते उसके नाखूनखुदे मुँह पर बार-बार नजर जाती थी। मुझे अजीब लग रहा था, हँसी भी आ रही थी और कौतुहल भी। एकांत छोटी भावनाओं को भी जैसे बड़ा कर देता है। सोचा, कौन देखेगा, जरा करके देखते हैं। नेहा डींग मारती है कि सच बोलती है पता तो चलेगा।

मैंने उठकर दरवाजा लगा दिया।

नेहा का खयाल कहीं दूर से आता लगा। जैसे वह मुझपर हँस रही हो।

मध्यम साइज का केला। ज्‍यादा लम्‍बा नहीं। अभी थोड़ा अधपका। मोटा और स्वस्थ।

मैं बिस्तर पर बैठ गई और नाइटी को उठा लिया। कभी अपने नंगेपन को चाहकर नहीं देखा था। इस बार मैंने सिर झुकाकर देखा। बालों के झुरमुट के अंदर गुलाबी गहराई। मैंने हाथ से महसूस किया - चिकना, गीला, गरम... मैंने खुद पर हँसते हुए ही केले को अपने मुँह से लगाकर गीला किया और उसके लार से चमक गए मुँह को देखकर चुटकी ली, 'जरूर खुश होओ बेटा, ऐसी जबरदस्त किस्मत दोबारा नहीं होगी।' योनि के होठों को उंगलियों से फैलाया और अंदर की फाँक में केले को लगा दिया। कुछ खास तो नहीं महसूस हुआ, पर हाँ, छुआते समय एक हल्की सिहरन सी जरूर आई। उस कोमल जगह में जरा सा भी स्‍पर्श ज्यादा महसूस होता है। मैंने केले को हल्के से दबाया लेकिन योनि का मुँह बिस्तर में दबा था।

मैं पीछे लेट गई। सिर के नीचे अपने तकिए के ऊपर नेहा का भी तकिया खींचकर लगा लिया। पैरों को मोड़कर घुटने फैला लिये। मुँह खुलते ही केले ने दरार के अंदर बैठने की जगह पाई। योनि के छेद पर उसका मुँह सेट हो गया, पर अंदर ठेलने की हिम्मत नहीं हुई। उसे कटाव के अंदर ही रगड़ते हुए ऊपर ले आई। भगनासा की घुण्डी से नीचे ही, क्योंकि वहाँ मैं बहुत संवेदनशील हूँ। नीचे गुदा की छेद और ऊपर भगनासा से बचाते हुए मैंने उसकी ऊपर नीचे कई बार सैर कराई। जब कभी वह होठों के बीच से अलग होता, एक गीली 'चट' की आवाज होती। मैंने कौतुकवश ही उसे उठा-उठाकर 'चट' 'चट' की आवाज को मजे लेने के लिए सुना। हँसी और कौतुक के बीच उत्तेजना का मीठा संगीत भी शरीर में बजने लगा था। केला जैसे अधीर हो रहा था भगनासा का शिवलिंग-स्‍पर्श करने को। 'कर लो भक्त' मैंने केले को बोलकर कहा और उसे भगनासा की घुण्‍डी के ऊपर दबा दिया। दबाव के नीचे वह लचीली कली बिछली और रोमांचित होकर खिंच गई। उसके खिंचे मुँह पर केले को फिराते और रगड़ते मेरे मुँह से पहली 'आह' निकली। मैंने नेहा को मन ही मन गाली दी - साली!

कोई बगल के कमरे से आवाज आई। हाथ तत्क्षण रुक गया। नजर अपने आप किवाड़ की कुंडी पर उठ गई। कुंडी चढ़ी हुई थी। फिर भी गौर से देखकर तसल्ली की। रोंगटे खड़े हो गए। कोई देख ले तो! नाइटी पेट से ऊपर, पाँव फैले हुए, उनके बीच होंठों को फैलाए बायाँ हाथ, दाहिने हाथ में केला। कितनी अश्लील मुद्रा में थी मैं!! मेरे पैर किवाड़ की ही तरफ थे। बदन में सिहरन-सी दौड़ गई। केले को देखा। वह भी जैसे बालों के बीच मुँह घुसाकर छिपने की कोशिश कर रहा था लेकिन बालों की घनी कालिमा के बीच उसका पीला शरीर एकदम प्रकट दिख रहा था। डर के बीच भी उस दृश्य को देखकर मुझे हँसी आ गई, हालाँकि मन में डर ही व्याप्त था।

लेकिन यौनांगों से उठती पुकार सम्मोहनकारी थी। मैंने बायाँ हाथ डर में ही हँटा लिया था। केवल दाहिना हाथ चला रही थी। केला बंद होठों को अपनी मोटाई से ही फैलाता अंदर के कोमल मांस को ऊपर से नीचे तक मालिश कर रहा था। भगनासा के अत्यधिक संवेदनशील स्नायुकेन्द्र पर उसकी रगड़ से चारों ओर के बाल रोमांचित होकर खड़े हो गए थे। स्त्रीत्व के कोमलतम केन्द्र पर केले के नरम कठोर गूदे का टकराव बड़ा मोहक लग रहा था। कोई निर्जीव वस्तु भी इतने प्यार से प्यार कर सकती है! आश्‍चर्य हुआ। नेहा ठीक कहती है, केले का जोड़ नहीं होगा।

मैंने योनि के छेद पर उंगली फिराई। थोड़ा-सा गूदा घिसकर उसमें जमा हो गया था। 'तुम्हें भी केले का स्वाद लग गया है', मैंने उससे हँसी की। मैंने उस जमे गूदे को उंगली से योनि के अंदर ठेल दिया। थोड़ी सी जो उंगली पर लगी थी उसको उठाकर मुँह में चख भी लिया। एक क्षण को हिचक हुई, लेकिन सोचा नहा-धोकर साफ तो हूँ। वही परिचित मीठा, थोड़ा कसैला स्वाद, लेकिन उसके साथ मिली एक और गंध - योनि के अंदर की मुसायी गंध। मैंने केले को उठाकर देखा, छिलके के अंदर मुँह घिस गया था। मैंने छिलका अलगाकर फिर से गूदे में नाखून से खोद दिया। देखकर मन में एक मौज-सी आई और मैंने योनि में उंगली घुसाकर कई बार कसकर रगड़ दिया।

उस घर्षण ने मुझे थरथरा दिया और बदन में बिजली की लहरें दौड़ गईं। हूबहू मोटे लिंग-से दिखते मुँह को मैंने पुचकार कर चूम लिया। और उस क्षण लगा, मन से सारी चिंता निकल गई है, कोई डर या संकोच नहीं। मैंने बेफिक्र होकर केले को योनि के मुँह पर लगा दिया और उसे रगड़ने लगी। दूसरे हाथ की तर्जनी अपने आप भगांकुर पर घूमने लगी। आनंद की लहरों में नौका बहने लगी। सांसें तेज होने लगीं। मैंने खुद अपनी छातियों को तेज तेज उठते बैठते देखकर मैंने उन्‍हें एक बार मसल दिया।

मेरा छिद्र एक बड़ी घूमती भँवर की तरह केले को अदंर लेने की कोशिश कर रहा था। मैंने केले को थपथपाया, 'अब और इंतजार की जरूरत नहीं। जाओ ऐश करो।' मैंने उसे अंदर दबा दिया। उसका मुँह द्वार को फैलाकर अंदर उतरने लगा। डर लगा, लेकिन दबाव बनाए रही। उतरते हुए केले के साथ हल्का सा दर्द होने लगा था लेकिन यह दर्द उस मजे में मिलकर उसे और स्वादिष्ट बना रहा था। दर्द ज्यादा लगता तो केले को थोड़ा ऊपर लाती और फिर उसे वापस अंदर ठेल देती।

धीरे धीरे मुझमें विश्‍वास आने लगा - कर लूंगी। जब केला कुछ आश्‍वस्त होने लायक अंदर घुस गया तब मैं रुकी - केले का छिलका योनि के ऊपर पत्ते की तरह फैला हुआ था। मेरी देह पसीने-पसीने हो रही थी।

अब और अंदर नहीं लूंगी, मैंने सोचा। लेकिन पहली बार का रोमांच और योनि का प्रथम फैलाव उतने कम प्रवेश से मानना नहीं चाह रहे थे। थोड़ा-सा और अंदर जा सकता है। अगर ज्यादा अंदर चला गया तो? मैं उतने ही पर से केले को पिस्टन की तरह चलाने लगी।

आधे अधूरे कौर से मुँह नही भरता, उल्टे चिढ़ होती है। मैंने सोचा, थोड़ा सा और... । सुरक्षित रखते हुए मैंने गहराई बढ़ाई और फिर उतने ही तक से अंदर बाहर करने लगी। ऊपर बाएँ हाथ लगातार भगनासा का मर्दन कर रहा था। शरीर में दौड़ते करंट की तीव्रता और बढ़ गई। पहले कभी इस तरह से किया नहीं था। केवल उंगली अंदर डाली थी, उसमें वो संतोष नहीं हुआ था। अब समझ में आ रहा था औरत के शरीर की खूबी क्या होती है। नेहा क्यों इसके पीछे पागल रहती है। जब केले से इतना अच्छा लग रहा था तो वास्तविक संभोग कितना अच्छा लगता होगा!!!

मेरे चेहरे पर खुशी थी। पहली बार ये चिकना-चिकना घर्षण एक नया ही एहसास था। उंगली की रगड़ से अलग। बेकार ही इससे डर रही थी।

केला निश्‍चिंत अंदर-बाहर हो रहा था। अब उसे योनि से बिछड़ने का डर नहीं था। मैं उसके आवागमन का मजा ले रही थी। केले के बाहर निकलते समय योनि भिंचकर अंदर खींचने की कोशिश करती। मैं योनि को ढीला कर उसे पुन: अंदर ठेलती। इन दो विरोधी कोशिशों के बीच केला आराम से आनंद के झोंके लगा रहा था। मैं धीरे-धीरे सावधानी से उसे थोड़ा थोड़ा और अंदर उतार रही थी। आनंद की लहरें ऊँची होती जा रही थीं। भगांकुर पर उंगलियों की हरकत बढ़ रही थी। सनसनाहट बढ़ रही थी और अब किसी अंजाम तक पहुँचने की इच्छा सर उठाने लगी थी।

बहुत अच्छा लग रहा था। जी करता था केले को चूम लूँ। एक बार उसे निकालकर चूम भी लिया और पुन: छेद पर लगा दिया। अंदर जाते ही शांति मिली। योनि जोर जोर से भिंच रही थी। मैंने अपने कमर की उचक भी महसूस की।

धीरे धीरे करके मैंने आधे से भी अधिक अंदर उतार दिया। डर लग रहा था, कहीं टूट न जाए। हालाँकि केले में पर्याप्त सख्ती थी। मैं उसे ठीक से पकड़े थी। योनि भिंच-भिंचकर उसे और अंदर खींचना चाह रही थी। केला भी जैसे पूरा अंदर जाने के लिए जोर लगा रहा था। मैं भरसक नियंत्रण रखते ही अंदर बाहर करने की गति बढ़ा रही थी। योनि की कसी चिकनी दीवारों पर आगे पीछे सरकता केला बड़ा ही सुखद अनुभव दे रहा था।

कितना अच्छा लग रहा था!! एक अलग दुनियाँ में खो रही थी। एक लय में मेरा हाथ और सांसें और धड़कनें चल रही थीं। तीनों धीरे धीरे तेज हो रहे थे। मैं धरती से मानों ऊपर उठ रही थी। वातावरण में मेरी आह आह की फुसफुसाहटों का संगीत गूंज रहा था। कोई मीठी सी धुन दिमाग में बज रही थी ....................

"आज मदहोश हुआ जाए रे मेरा मन मेरा मन शरारत करने को ललचाए रे मेरा मन मेरा मन ..................

धीरे धीरे दाहिने हाथ ने स्वत: ही अंदर बाहर करने की गति सम्हाल ली। मैं नियंत्रण छोड़कर उसके उसके बहाव में बहने लगी। मैंने बाएँ हाथ से अपने स्तनों को मसलना शुरू कर दिया। उसकी नोकों पर ब्रा के ऊपर से ही उंगलियाँ गड़ाने, उन्हें चुटकी में पकड़कर दबाने की कोशिश करने लगी। योनि में कंपन सा महसूस होने लगा। गति निरंतर बढ़ रही थी -- अंदर-बाहर, अंदर-बाहर... सनसनी की ऊँची होती तरंगे .... 'चट' 'चट' की उत्तेजक आवाज... सुखद घर्षण.. भगनासा पर चोट से उत्पन्न बिजली की लहरें... चरम विंदु का क्षितिज कहीं पास दिख रहा था। मैंने उसतक पहुँचने के लिए और जोर लगा दिया .....

कोई लहर आ रही है... कोई मुझे बाँहों में कस ले, मुझे चूर दे............................. ओह......

कि तभी - 'खट खट खट'.........

मेरी साँस रुक गई। योनि एकदम से भिंची, झटके से हाथ खींच लिया...............

खट खट खट..... हाथ में केवल डंठल और छिलका था। मैं बदहवास हो गई। अब क्या करूँ?

"निशा, दरवाजा खोलो.......... खट खट खट।"

मैंने तुरंत नाइटी खींची और उठ खड़ी हुई। केला अंदर महसूस हो रहा था। चलकर दरवाजे के पास पहुँची और छिटकिनी खोल दी।

नेहा मेरे उड़े चेहरे को देखकर चौंक पड़ी। "क्या बात है?"

मैं ठक। मुँह में बोल नहीं थे।

"क्या हुआ, बोलो ना?"

क्या बोलती? केला अंदर गड़ रहा था। मैंने सिर झुका लिया। ऑंखें डबडबा आईं।

नेहा घबराई, कुछ गड़बड़ है। कमरे में खोजने लगी। केले का छिलका बिस्तर पर पड़ा था। नाश्‍ते की दोनों प्लेटें एक साथ स्टडी टेबल पर रखी थीं।

"क्या बात है? कुछ बोलती क्यों नहीं?"

मेरा घबराया चेहरा देखकर संयमित हुई, "आओ, पहले बैठो, घबराओ नहीं।" मेरा कंधा पकड़कर लाई और बिस्तर पर बिठा दिया। मैं किंचित जांघें फैलाए चल रही थी और फैलाए ही बैठी।

"अब बोलो, क्या बात है।"

मैंने भगवान से अत्यंत आर्त प्रार्थना की। प्रभो ..... बचा लो।

अचानक उसके दिमाग में कुछ कौंधा। उसने मेरी चाल और बैठने के तरीके में कुछ फर्क महसूस किया था। केले का छिलका उठाकर बोली, "क्‍या मामला है?"

मैं एकदम शर्म से गड़ गई। सिर एकदम झुका लिया। आँसू की बूंदें नाइटी पर टपक पड़ी।

"अंदर रह गया है?"

मैंने हथेलियों में चेहरा छिपा लिया। बदन को संभालने की ताकत नहीं रही। बिस्तर पर गिर पड़ी।

नेहा ठठाकर हँस पड़ी।

"मिस निशा, आपसे तो ऐसी उम्मीद नहीं थी। आप तो बड़ी सुशील, मर्यादित और सो कॉल्ड क्या क्या हैं?" उसकी हँसी बढ़ने लगी।

मुझे गुस्सा आ गया। बेदर्द लड़की! मैं इतनी बड़ी मुश्‍किल में हूँ और तुम हँस रही हो?

"हँसूं न तो क्या करूँ? मुझसे तो बड़ी बड़ी बातें कहती हो, खुद ऐसा कैसे कर लिया?"

मैंने शर्म और गुस्से से मुँह फेर लिया।

अब क्या करूँ? बेहद डर लग रहा था। देखना चाहती थी कितना अंदर फँसा हुआ है, निकल सकता है कि नहीं। कहीं डॉक्टर बुलाना पड़ गया तो? सोचकर ही रोंगटे खड़े हो गए। कैसी किरकिरी होगी! मैंने आँख पोछी और हिम्मत करके कमरे से बाहर निकली। कोशिश करके सामान्य चाल से चली, गलियारे में कोई देखे तो शक न करे। बाथरूम में आकर दरवाजा बंद किया और नाइटी उठाकर बैठकर नीचे देखा। दिख नहीं रहा था। काश, आइना लेकर आती। हाथ से महसूस किया। केले का सिरा हाथ से टकरा रहा था। बेहद चिकना। नाखून गड़ाकर खींचना चाहा तो गूदा खुदकर बाहर चला आया। और खोदा। उसके बाद उंगली से टकराने लगा और नाखून गड़ानेपर भीतर धँसने लगा। मैंने उछलकर देखा। शायद झटके से गिर जाए। डर भी लग रहा था कहीं कोई पकड़ न ले। कई बार कूदी। बैठे बैठे और खड़े होकर भी। कोई फायदा नहीं। कूदने से कुछ होने की उम्मीद करना आकाश कुसुम था।

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